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नहीं किसी की मालिकी ..सबै भूमि गोपाल की...! (भाग 2)

संत विनोबा ने भी की थी कैशलेस की वकालत आज यह आश्चर्य का विषय हो सकता है परन्तु संत विनोबा ने अपनी ऐतिहासिक सर्वोदय यात्रा आरंभ करने से पूर्व आश्रम को कैशलेस बनाने का संकल्प लिया था। राजेन्द्र स्मृति ग्रन्थमाला के अंतरगत भारत जैन महामंडल वर्धा द्वारा प्रकाशित 'सर्वोदय यात्रा' में बल्लभस्वामी ने अपनी प्रस्तावना में इस तथ्य का उल्लेख किया है। सर्वोदय यात्रा में सहयोगी रहे दत्तोबा दस्ताने ने इस यात्रा का दैनिक इतिहास लिखा था। सर्वोदय सम्मेलन मे जाने के लिये सात साथियों के साथ जब विनोवा ने पवनार आश्रम से पैदल निकलने का विचार बनाया तो कई लोगों के मन में यह चिंता थी कि इतनी लंबी यात्रा के लिये वे पैदल क्यों चल दिये। जब यह संशय विनोवा जी के सम्मुख आया तो उन्होने कहा कि सर्वोदय सम्मेलन में लोग जिस तरीके से जाना चाहें जा सकते हैं वे रेलगाडी से भी आ सकते हैं परन्तु यदि पैदल आयेंगे तो यह अधिक उचित होगा। उनका मानना था कि इससे देश का दर्शन होता है व्यक्ति जनता के संपर्क में आता है तथा सर्वोदय का संदेश जनता तक पहुंचाया जा सकता है। वाहन का उपयोग न करने की कोई प्रतिज्ञा उनके द्वारा नहीं ली

नहीं किसी की मालिकी ..सबै भूमि गोपाल की...! (भाग 1)

सर्वोदय यात्रा का संकल्प 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ उसके छह माह बीतने तक आजादी के नायक महात्मा गांधी की हत्या हो गई। लगभग ढाई वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को हमने अपना संविधान भी अंगीकार कर लिया लेकिन महात्मा गांधी के सपनों का भारत दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। भूख और अशिक्षा भारतीयों की मूल समस्या थी और स्वतंत्रता के नाम पर देश के सभी नागरिक अनाज के लिए सरकार की ओर ही देख रहे थे। धीरे धीरे इसी स्थिति में तीन साढ़े तीन वर्ष व् यतीत हो गए और कोई सुधार न हुआ तो महात्मा गांधी जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत विनोवा भावे ने अनाज की कमी का हल निकालने के लिए "सर्वोदय यात्रा" करने का संकल्प लिया। हैदराबाद के शिवरामपल्ली में 8 अप्रैल से 11 अप्रैल 1951 में एक सर्वोदय सम्मेलन होने वाला था । पवनार आश्रम में सर्वोदय समाज और सर्व सेवा संघ के परस्पर संबंध में हो रही चर्चा के दौरान एक भाई ने विनोबा जी से पूछा कि- '' हैदराबाद में जो सर्वोदय सम्मेलन हो रहा है आप उस में आने वाले हैं या नहीं...?'' विनोबाजी ने कहा- '' आने का विचार नहीं है ...'' व

भूमि सुधार का हरदोई माडल

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भारतीय गणतंत्र की स्वतंत्रता के बाद देश की सबसे बडी समस्या विभाजन के फलस्वरूप छिन्न भिन्न हुयी संपत्तियां नहीं थी अपितु जमींदार और आम भारतीय के बीच संपत्ति का बंटवारा थी। मध्य प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में तो जमींदार और आम आदमी का संघर्ष कम्मुनिष्टों के लिये हिंसा की ओर बढने का साधन बन गया था।   ऐसे में सन् 1951 में साधक संत विनोवा ने भूमिसमस्या के समाधान की हिंसक राह तलाश रहे कम्युनिस्टों के बीच जाने का फैसला लिया और मार्च में महाराष्ट्र के पवनार से निकलकर अशांत तेलंगाना क्षेत्र में 339 मील की सर्वोदय यात्रा आरंभ की थी।   इसी वर्ष 1 मई मजदूर दिवस पर हरदोई के थमरवा गांव मे एक बच्चे का जन्म हुआ जो सत्तर के दशक तक पहुंचते पहुंचते विनोवा की विचारधारा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने कैरियर के रूप में समाज सेवा के क्षेत्र को चुन लिया। सर्वोदय आश्रम टडियांवा के संस्थापक श्री रमेश भाई ने विनोवा के भूदान आन्दोलन को एक नये स्वरूप में लागू करने की मुहिम जनपद हरदोई में चलायी। उन्होने उपजाउ जमीनों को भूदान के माध्यम से समाज के निचले तबके को बांटने के स्थान पर उसर भूमि को सुधार

बरेली में बच्चन जी की आत्मकथा की पडताल..!

# हरिवंश_राय_बच्चन   जी से  # बरेली   के   # निरंकार_देव_सेवक   जी की प्रगाढ मित्रता थी।   वो निरंकार देव सेवक जी को नियमित पत्र लिखा करते थे। निरंकार जी ने उनके पत्रों के संग्रह को प्रकाशित भी कराया था। हरिवंश राय जी ने जब पहली बार तेेजी बच्चन जी को देखा था तो अपने उस अनुभव को ''क्या भूलूं क्या याद करू'' में लिखा है जिसे मैने अपनी पिछली पोस्ट में आपसे साझा किया था।   आज तेजीजी के प्रथम आग्रह और उसके परिणाम का जिक्र करना चाहूंगा । उन्होंने अपनी आत्मकथा में आगे लिखा है – ''....वह नए वर्ष के आगमन की रात थी। तेजी सहित सबने कविताएं सुनाने का आग्रह किया।   हताश बच्चनजी की मानसिक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब तेजी जैसी स्वरूपवान युवती ने मदहोश कर देने वाली आवाज में उनसे अनुरोध किया -   ‘अजी कुछ सुनाइए ना?’ तभी जहां मधुशाला के एक-दो जाम छलकाए जाने के बजाय ये पंक्तियां सुना दीं..- ''क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी?   क्या करूं? मैं दुःखी जब-जब हुआ   संवेदना तुमने दिखाई, मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,   रीति दोनों ने निभाई, किंतु इस आभ

पोस्टिंगनामा : नीड़ का पहला तिनका

स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है – ''....जब मैं बरेली गया था, तब मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा कि इसी बरेली में पांच वर्ष बाद तेजी से मेरी सगाई होगी। अदृश्य कहीं से देख रहा था कि बरेली की उस यात्रा में ही मैं अपने नीड़ का पहला तिनका रख आया था।..'' हरिवंश रायजी ज्ञानप्रकाश जौहरी के मेहमान बन कर गए थे वे बरेली कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर थे। वहीं पर उनकी अपने समय के प्रसिद्ध कवि  # निरंकार_देव_सेवक  से भी निकटता बढ़ी। बच्चन जी ''क्या भूलूं क्या याद करूं'' में आगे लिखते हैं- ''..बात 31 दिसंबर 1941 की है, प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) ने तार भेजकर मुझे अचानक बरेली बुला लिया। घर पहुँचने के बाद जब 'चाय आ जाती है तो वे (प्रकाश) अपनी पत्‍‌नी प्रेमा से कहते हैं, तेजी को भी आवाज दे दो, जाग गई होंगी। यह नाम प्रकाश के घर में पहली बार सुनता हूँ। मुझे बताया जाता है, तेजी असल में तेजी सूरी हैं। फतेहचंद कालेज, लाहौर में मनोविज्ञान पढ़ाती हैं। वहां प्रेमा प्रिंसिपल होकर गई हैं। प्रेमा लाहौर में इन्हीं के साथ रहती थीं। बडे़ दिन की छुट्टियों में ब

निरंकार देव सेवक

# बरेली अपनी कविताओं के लिए पहचाने जाने वाले निरंकार देव सेवक को बरेली के लोगों ने भुला दिया शहर में न तो देव का स्मारक है और न ही उनके याद में कोई बड़ा आयोजन होता है..! श्री निरंकार देव सेवक जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करती कोई रचना अथवा अपना आलेख मेल द्वारा प्रेषित कीजिये। प्राप्त रचनाओें में एक आलेख और तीन रचनाओं का चयन किसी वरिष्ठ रचनाकार से कराकर उन्हे पुरस्कृत किया जायेगा। यदि विजेता शहर से बाहर के होंगे तो उन्हे प्रमाणपत्र डाक से भेजा जायेगा। रचनाएं इस मेल पर भेजें Kavitakoshbly@gmail.com